परमार्थ निकेतन पधारे पंचायती महा निर्वाणी अखाड़ा से विश्वगुरु महामंडलेश्वर परमहंस श्री स्वामी महेश्वरानंद पुरी जी

परमार्थ निकेतन में पंचायती महानिर्वाणी अखाड़ा के विश्वगुरू महामंडलेश्वर परमहंस श्री स्वामी महेश्वरानन्द पुरी जी पधारे। परमार्थ निकेतन के अध्यक्ष स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी और स्वामी महेश्वरानन्द पुरी जी की भेंटवार्ता हुई।

स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी ने कहा कि भारतीय संस्कृति व सभ्यता विश्व की सर्वाधिक प्राचीन, समृद्ध संस्कृति व सभ्यताओं में से एक है। इसे संस्कृतियों की जननी कहा गया है। हमारे ऋषियों द्वारा शोध किया गया योग, ध्यान, जीवन जीने की कला, विज्ञान और भारतीय संस्कृति का सदैव विशेष स्थान रहा है। भारत की संस्कृति व सभ्यता सनातन काल से ही अपने परंपरागत अस्तित्व के साथ जीवंत और जागृत बनी हुई है।

संस्कृति किसी भी देश और समुदाय की आत्मा होती है। संस्कृति से ही देश के उन सभी संस्कारों का बोध होता है जिनको ध्यान में रखते हुये हम अपने आदर्शों, जीवन मूल्यों, आदि का निर्धारण करता है। भारतीय संस्कृति का सर्वाधिक व्यवस्थित रूप हमें वैदिक युग में प्राप्त होता है। वेद विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ माने जाते हैं। प्रारंभ से ही भारतीय संस्कृति अत्यंत उदात्त, समन्वयवादी, सशक्त एवं जीवंत रही हैं, जिसमें जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा आध्यात्मिकता का अद्भुत समन्वय है। भारतीय संस्कृति संपूर्ण विश्व को एक परिवार मानती है इसका कारण उनका उदार दृष्टिकोण है।

हमारे शास्त्रों में ‘उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम’ के सिद्धांत में गहरी आस्था रही है। शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों का विकास ही भारतीय संस्कृति की नींव है। ‘अनेकता में एकता’ सिर्फ कुछ शब्द नहीं हैं, बल्कि भारत जैसे सांस्कृतिक और विरासत में समृद्ध देश का एक आदर्श वाक्य है। इस देश की उदारता और जीवंतता ही इसकी महानता है।

भारतीय संस्कृति की विशालता अद्भुत है, उसमें विभिन्न रंग और जीवंतता का अद्भुत संगम है। भारत सदियों से सहिष्णुता, सहयोग और अहिंसा के जीवंत सूत्रों के साथ आगे बढ़ता रहा है। भारत एक ऐसा देश है जिसकी विशेषता सहिष्णुता और अनेकता में एकता रही है। भारत में विविध संस्कृतियों के सामंजस्यपूर्ण अस्तित्व की अभिव्यक्ति हमेशा रही है।

भारत का इतिहास विश्व बंधुत्व और सहयोग का रहा है। किसी भी देश के विकास में उसकी संस्कृति का बहुत योगदान होता है। देश की संस्कृति, उसके मूल्य और मूल का प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिये इसे जीवंत और जागृत बनाये रखना अत्यंत आवश्यक है।

दोनों पूज्य संतों ने इस पर चिंतन करते हुये भावी पीढ़ियों को इससे पोषित करने का संकल्प कराया।